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संपादकीय: तत्काल तीन तलाक- प्रथा से कुप्रथा

इस्लाम मे विवाह को निकाह कहते है, यह एक स्त्री और पुरुष के मंजूरी से होता है, जिसमे पुरूष स्त्री को एक निश्चित राशि देता है ,जिसे मेहर कहा जाता है।मुस्लिम में एक प्रथा प्रचलित है,तीन तलाक यानी कि तलाक-ए-बिद्दत, ऐसा शब्द जो कोई भी महिला वो मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम नही सुनना चाहती। यह उसके लिए जीतेजी मौत से कम सजा नही है। तलाक एक ऐसा शब्द है, जो एक वैवाहिक दम्पति के बीच एक कटुदिवार खड़ा कर देती है।
मुस्लिम समाज मे तीन तलाक एक ‘प्रथा’ के रूप पे प्रचलित थी, और प्रथा कोई भी हो अपने आप में एक गलत शब्द है। तीन तलाक से मुस्लिम महिलाओं को हमेशा दंश ही झेलना पड़ा है, इसे किसी भी मायने में सही नही कहा जा सकता।
हालांकि किसी भी व्यक्ति को जबर्दस्ती किसी के बंधन में नही बांध सकते, लेकिन उससे छुटकारा पाने के लिए एक अलग नीति है, जो कानूनी रूप से की जा सकती है, लेकिन एक साथ तीन तलाक बोल कर चाहे वह मौखिक हो या लिखित रिश्ते को खत्म कर देना कभी सही नही हो सकता।
तलाक़-ए-बिद्दत मुस्लिम धर्म में ही प्रचलित है, लेकिन इसे गलत रूप से उल्लखित किया गया था, कुरान-ए-पाक के अनुसार तीन तलाक तीन बार मे तीन अलग-अलग समय पर बोला जाता है, इससे अगर व्यक्ति को एक समय गुस्सा रहता है, तो दूसरे समय वह शांत हो जाता है, और रिश्ता टूटने से बच जाता है।
लेकिन हाल में इसे एक ही समय बोलने का रिवाज हो गया, देखने मे आया है कि, अगर दाल में नमक तेज हो गया तो तीन तलाक, रोटी जल गई तो तीन तलाक, पत्नी मायके से नही आई तो तीन तलाक, ये ऐसा कठोर नियम बन चुका था जिससे इस धर्म की सारी महिलाओं को एक भय के रूप में हमेशा सामना करना पड़ता था।
भारतीय संविधान के अनुसार यह महिलाओं के समानता के अधिकार का उल्लंघन है, संविधान की धारा 14, 15, 21 इत्यादि के अनुसार तीन तलाक हमेशा से उनके अधिकारों का उलंघन करता चला आ रहा।
मुस्लिम महिला के अधिकार के लिए सरकार ने मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक अगस्त 2017 में पास किया, जिसके अनुसार सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार लोकसभा द्वारा बिल लाकर तत्काल तीन तलाक को शून्य करार कर दिया गया था, लेकिन यह मामला राज्यसभा में फंसा रहा और तब तक लोकसभा चुनाव आ गया और यह बिल स्वतः ही समाप्त हो गया। 17वीं लोकसभा गठित होने के बाद फिर इसे एक बार लोकसभा में लाया गया और इसे पारित कर दिया गया, फिर इसे राज्यसभा में भी पारित कर दिया गया, फिर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने से यह कानून बन गया। इसके अनुसार अगर कोई भी मुस्लिम व्यक्ति एक साथ तीन तलाक, तलाक-ए-बिद्दत किसी भी रूप में चाहे वह लिखित, मौखिक, इलेक्ट्रॉनिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो, बोलता है तो उसे तीन वर्ष तक कारावास और अपनी पत्नी को जीविका के रूप में राशि देगा और यह राशि मजिस्ट्रेट ही तय करेगा। हालांकि इसके लिए वह दोनो पक्ष को उपस्थित करके दोनो की बात सुनेगा फिर अपना निर्णय देगा।
सरकार का यह कदम सराहनीय और प्रसंसनीय है, क्योकि जहाँ सरकार एक तरफ महिला सशक्तिकरण की बात करती थी वही इससे उसके अधिकारो का हनन होता था, यह बिल आ जाने से यह गुंजाइश है कि इससे महिलाएं कम पीड़ित होंगी और उनके अधिकारो को बचाया जा सकेगा।
आज जब कोई व्यक्ति तलाक-ए-बिद्दत के पक्ष में बोलता है, तो उनसे एक बार पूछना चाहिए कि अगर यही आपके बेटी, बहन के साथ हो तब आप क्या चाहेंगे। तत्काल तीन तलाक वैवाहिक दम्पति के बीच एक अजगर के समान था जो कभी भी उस रिश्ते को खा सकता था। यह विधेयक पास होने से हर उस महिला को न्याय मिलेगा को इसको झेल रही है।
लेकिन कहते है देर से मिला न्याय भी अन्याय के बराबर होता है, इससे पहले जो महिला इससे पीड़ित हो चुकी है उनका क्या होगा? क्या इससे शाहबानो को 70 साल बाद न्याय मिल पायेगा और अगर मिल पायेगा तो क्या यह देर से मिला न्याय, अन्याय न होगा। इससे पहले सरकार ने इसके बारें में क्यो नही सोचा?
खैर अब उम्मीद है की कोई दूसरी शाहबानो के साथ यह अन्याय नही होगा।
जिस प्रकार हिन्दू बहुविवाह, सती प्रथा, बाल विवाह, इत्यादि कुप्रथाओं को अधिनियम लाकर समाप्त कर दिया गया था, उसी प्रकार इसे पहले ही समाप्त कर देना चाहिये था, इससे बहुत सारी महिलाएं इसे झेलने से बच जाती।

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